ज्यों-ज्यों ट्रेन गांव के समीप आती जा रही थी, मेरे मन को कई तरह के ख्याल सता रहे थे, पूरे बीस वर्ष बाद गांव लौट रही हूं, अपनी पढाई पूरी करके...
ज्यों-ज्यों ट्रेन गांव के समीप आती जा रही थी, मेरे मन को कई तरह के ख्याल सता रहे थे, पूरे बीस वर्ष बाद गांव लौट रही हूं, अपनी पढाई पूरी करके और कुछ दिन नौकरी में गुजार कर। क्या अब भी वैसा ही होगा मेरा गांव! वैसी ही पगडंडियां, खेत, कुएं, बावडी, नदी और बंसवाडी! बंसवाडी का स्मरण आते ही मैं भय से सिहर उठी- अरे, वहां तो चुडैलें रहती थीं। क्या वे अब भी वहां होंगी! गांव से बाहर की तरफ गडहियां थीं जिनमें बरसात का पानी भरा रहता था। गडहियों का पानी-जहां शौच के बाद काम आता था; वहीं बंसवाडी के मोटे-मोटे बांस, उनकी पतली-पतली कैनियां और पत्ते मिलकर ऐसा घना झुरमुट बनाते कि वहां स्त्रियों को फरागत की सुविधा रहती थी। गांव में एक ही प्राइमरी पाठशाला थी, जो बरगद के बहुत पुराने, घने पेड के नीचे लगती थीं। बच्चे घर से बोरा, पटरी व खडिया लेकर वहां जाते। पाठशाला में एक ही मास्टर थे, जिनका नाम तो रमाशंकर था, पर बच्चे उन्हें यमराज कहते। स्कूल में जब मास्टर जी नहीं रहते या फिर कहीं जाकर किसी से गपिया रहे होते, हम बच्चे खूब हो-हल्ला करते। तमाम तरह की बातें करते, जो आगे बढकर चुडैलों तक पहुंच जाती। एक लडकी जो बारह साल की थी और जिसकी शादी भी हो चुकी थी। हम लोगों के साथ कक्षा-2 में पढ रही थी, उम्र के हिसाब से वह सयानी भी थी। एक दिन उसने बताया कि उसके दादाजी के पास रोज एक चुडैल औरत बनकर आती है एक लडका बताता था कि उसने चुडैल देखी है। सामने वाले सेमर के पेड पर बंदर की तरह चढ रही थी। ऐसे ही अनगिनत किस्से। मैं डर के मारे कांपने लगती। घर पहुंचकर दादी की गोद में छिप जाती। थोडी देर बाद पूछती- दादी, क्या चुडैल होती है? दादी कहतीं- होती हैं न। फिर वे एक घटना सुनातीं- एक बार मेरी मौसी मूर्ति जिन्हें गांव के लोग मूरतिया कहते थे, को आधी रात को ही बंसवाडी जाने की जरूरत महसूस हुई, वे बडी निडर थीं, अकेली ही निकल पडीं। बंसवाडी होकर वे नदी के किनारे से वापस आने लगीं, तो देखा कि एक बडी-सी रोहू मछली वहां रेत में पडी है। मौसी का मन ललचा गया, वे उसे पकडने लगीं, तो मछली उछलकर आगे चली गई, मौसी भी बढी। फिर आगे मछली पीछे मौसी। आखिर में मछली पानी में चली गई। मौसी समझ गई कि यह मछली नहीं, कुछ और है। पर वे बिना डरे और मुडे सीधे घर की तरफ चलीं तो पीछे से किसी के नाक से बोलने जैसी आवाज आने लगी। मौसी ने पलटकर नहीं देखा, वरना जान से चली जातीं। मैं चीखकर रोने लगती, तो मां आकर दादी को डांटती- क्यों बच्ची को डराती हैं? मैं इसे अपने भाई के घर शहर भेज दूंगी। यहां रहकर बरबाद हो जायेगी। फिर दादी और मां में झगडा शुरू हो जाता और मैं भागकर बुआ के पास जाती, तो वह भी चुडैलों के बारे में अपने अनुभव सुनाने लगतीं। अन्तत: मां ने मुझे पढने को शहर भेज दिया। हाईस्कूल पास करने के बाद जब मैं मामा के साथ गांव लौटी, तो बहुत कुछ बदला था, पर चुडैलें और उनकी कहानियां उसी प्रकार थीं। एक दिन मैं बासवाडी की तरफ दुपहरिया में कुछ लडकियों के साथ निकल गई, तो धूप लग गई। लौटते ही तेज बुखार हो गया। बस क्या था, सारा गांव इकट्ठा हो गया। सबको संदेह था कि अवश्य ही मुझे चुडैल ने पकड लिया है। सुंदर सयान लडकी देख ललचाई गई होगी। फिर सोखा चाचा बुलाए गए। सोखा गांव का वह मर्द प्राणी होता था, जिससे चुडैलें भय खाती थीं। जिसकी जरूरत गांव के किसी घर को भी पड सकती थी, इसलिए सोखे को अनाज कटाई के समय ही सभी घरों से पर्याप्त अनाज दे दिया जाता था। जिसे सोखइती कहते थे। सोखा को बुलाया जाता देखकर मामा मेरे पास आए और बोले- देखो बेटा, कुछ भी हो जाए, तुम हाथ-पैर मत पटकना, बक-झक मत करना, चुडैल वगैरह कुछ नहीं होती। तुम्हें लू लगी है बस..। सोखा चाचा ने मुझे अपने सामने बैठाया और मंत्र पढने लगे। फिर हाथ-पैर पटकने लगे पर मैं बस बैठी मुस्कुराती रही, क्योंकि सोखा चाचा के ठीक पीछे मामा खडे थे और मुझे धैर्य रखने के इशारे कर रहे थे। बडे घर की लडकी थी, इसलिए मुझे न तो लाल मिर्ची की धूनी दी गई, न मारा-पीटा गया। वरना गरीब घरों की स्त्रियों को सोखा चाचा मारते-पीटते थे। लाल मिर्ची की धूनी देते थे। एक बार तो पडोस की मीना दीदी के गाल को उन्होंने ने चिमटे से दाग दिया था। हट्टे-कट्टे मर्द सोखा की मार से चुडैलें त्राहि-त्राहि करती भाग खडी होती थीं। शहर लौटने पर मैंने मामा से पूछा- मामा औरतों को ही क्यों चुडैलें पकडती हैं, मर्दो को क्यों नहीं पकडती? मामा मुस्कुराते हुए बोले- अब ये भी पूछ कि मर्द ही सोखा क्यों होते हैं, औरतें क्यों नहीं? मैंने उत्सुकता से पूछा- हां, मामा बताओ ना। मामा बोले- सबसे पहले तो यह जान ले कि भूत-प्रेत, चुडैल सब भ्रम है। भय ही भूत है। अच्छा यह बता- हिन्दी में भूत अंग्रेजी में पास्ट का क्या मतलब है। बीता हुआ न। तो जो बीत गया वह वापस आकर कष्ट कैसे दे सकता है? मामा ने समझाया- बेटा, जब मन का कष्ट बहुत बढ जाता है, तो तन के कष्ट की तरफ ध्यान नहीं जाता है। तू तो जानती ही है- गांव में औरतों के जिम्मे कितना काम होता है। सुबह से रात तक वे खटती रहती हैं। कूटना-पीसना, फटकना-पछोरना, पकाना-खाना, बर्तन-भडिया, झाडू-बुहारू के साथ ही अचार, बडी, पापड बनाना, गोबर पाथना, गाय-भैंस की देखभाल। कितना गिनवाऊं! ऐसे में उनको अपने बारे में सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। बिल्कुल बंधुआ मजदूर होती हैं वे। ऐसे में सुबह-शाम को बसवाडी जाने के बहाने उन्हें थोडी देर के लिए आजादी मिलती है तो..। मामा चुप हो गये, तो मेरी उत्सुकता और बढ गई। तो.. क्या मामा..! फिर यही कि उस समय उनकी दमित इच्छाएं-कल्पनाएं खुली हवा में सांस लेती हैं। उनके काट दिये गये पंख, उनके शरीर से आ लगते हैं। वे खुले आकाश में उड जाना चाहती है, पर अपने दमित जीवन की विवशता व बंधनों को सोचकर उदास हो जाती हैं। वे सोचती हैं- आखिर क्यों वे अन्याय-अत्याचार सहकर भी चुप रहने को विवश हैं! वे कब तक और कितना और क्यों सहें? अपनी वस्तु-स्थिति का ज्ञान उनमें बदले की भावना भर देता है। परिणाम यह होता है कि घर पहुंचते-पहुंचते उन्हें चुडैल पकड चुकी होती है। फिर वे कभी हंसती हैं, कभी विलाप करती हैं और हाथ-पैर, सिर पटकती हैं। दरअसल वे अपने को मनुष्य समझे जाने के लिए चीत्कार करती हैं। मामा ने आगे कहा- जिस तरह दमित गुलाम स्त्रियों की ईजाद चुडैलें हैं, उसी प्रकार मर्दो की ईजाद सोखा है। मर्द समाज जानता था कि स्त्रियों पर सवार चुडैलें उनके घर की इज्जत का तमाशा बना सकती हैं। घर की भीतरी कालिख को सबके सामने उनके मुंह पर मल सकती हैं, आजाद हो सकती हैं। इसलिए उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए सोखा की परिकल्पना की। इस तरह स्त्रियां डाल-डाल थीं तो मर्द-समाज पात-पात निकला। ट्रेन रुकी तो मैं अतीत से निकलकर वर्तमान में आ गई। गांव पहुंचकर देखा कि अब वह छोटे-मोटे कस्बे में बदल चुका है। नदी सूख चुकी है। गडहियां पाट दी गई हैं। बहुत सारे खेतों में मकान बन गए हैं। बहुत-सी दुकानें भी हो गई हैं। फास्ट-फूड, कोकाकोला, मोबाईल फोन की भी दुकान हैं। अब सबके घरों में शौचालय हैं। कई स्कूल व एक इंटर कॉलेज भी खुल चुका है। गरीब बच्चे भी साफ-सुथरे कपडे पहनकर स्कूल जाते हैं व पटरी, स्केल व खडिया के बदले कॉपी-पेन का इस्तेमाल करते हैं। यह प्रगति अच्छी लगी। रात को मां से बातचीत होने लगी, तो पूछ बैठी- मां, क्या अब यहां किसी को चुडैल नहीं पकडती? मां हंसी- जब सोखा नहीं रहा, तो चुडैलें कैसे रहेंगी? सोखा कहां गया मां..? उसने धंधा बदल लिया है.. अब वह दारू बेचता है। - दारू.. पर दारू गांव में आई कहां से? सोखा ही लाया, शुरू-शुरू में फुटबाल जैसे खोल में मंगवाता था.. फिर कनस्तरों में मंगवाने लगा। अब तो उसने कच्ची शराब की भट्ठी उसी जगह खोल ली है, जहां पहले बसवाडी थी। - यानी जहां चुडैलें थीं?- हां, अब जहां सोखा वहां चुडैलें और जहां चुडैलें वहां सोखा। शाम को चलना, दिखाऊंगी चुडैलों को। शाम के धुंधलके में मैंने शराब की वह भट्टी देखी- जहां पर ढेर सारी बोतलें थीं और बोतलों में बन्द थीं चुडैलें। कुछ चुडैलें, पुलिस की वर्दी में सोखा से चढावा मांग रही थीं। जो लोग वहां बैठे थे, उनके सामने बोतलों में बन्द चुडैलें थीं। जो बोतल खाली कर चुके थे, उन पर चुडैलें सवार हो चुकी थीं। उनमें से कुछ घर पहुंचकर अपनी औरत-बच्चों को पीट रहे थे। मैंने हंसते हुए मां से कहा- अच्छा हुआ मां कि चुडैलों ने औरतों को छोडकर मरदों को पकड लिया था।
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